देहरादून। उत्तराखंड में एक शिक्षक ने शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत के सामने प्रधानाचार्य के बिना सरकारी स्कूल चलने का मामला उठाया तो खबर सोशल मीडिया से लेकर अखबारों और मीडिया चैनलों तक सुर्खियां बन गई लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई उत्तराखंड के शिक्षा मंत्री या सरकार नहीं चाहते कि उत्तराखंड के स्कूलों को प्रधानाचार्य मिले । यह सवाल उस शिक्षक से भी पूछना चाहिए जिन्होंने शिक्षा मंत्री के सामने मर्यादा की सारी हदें पार करते हुए मंच पर अपनी आवाज को बुलंद करने का काम किया । पूर्व शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय ने प्रधानाचार्य के पदों को भरने के लिए 50% सीधी भर्ती का फार्मूला अपनाने का प्रयास किया जिससे सरकारी स्कूलों में प्रधानाचार्य के 50% पद सीधी भर्ती और 50% पद प्रमोशन के जरिए भर जाएं । यही फार्मूला शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने आगे बढ़ते हुए इसकी नियमावली बना कर आयोग को प्रस्ताव भेज दिया लेकिन शिक्षक संगठन इसके विरोध में उतर खड़ा हुआ । शिक्षक संगठन का मानना था कि प्रधानाचार्यों के पद वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति से ही भरे जायें न कि सीमित विभागीय पदोन्नति परीक्षा से इसलिए इसके लिए सीधी भर्ती न हो । शिक्षक संगठन तो शिक्षक संगठन उत्तराखंड के कई विधायकों तक ने तक शिक्षा मंत्री को ऐसे पत्र भेजे कि प्रधानाचार्य कि विभागीय परीक्षा रोकी जाए । शिक्षा मंत्री भी शिक्षकों के विरोध और विधायकों के विरोध के बाद बैक फुट पर आए और नतीजा सबके सामने है की प्रधानाचार्य विभागीय पदोन्नति परीक्षा रुक गई । शिक्षा विभाग में शिक्षकों की आपसी लड़ाई से प्रमोशन रुके हैं ऐसे में अब प्रधानाचार्य की विभागीय परीक्षा भी रुकी हुई है, लेकिन निशाने पर शिक्षा मंत्री ही हैं इसलिए जो आक्रोश शिक्षक, शिक्षा मंत्री को दिखा रहे हैं, यदि शिक्षक चाहते हैं की प्रधानाचार्य के पद भरे जाएं तो, उन्हें यही आक्रोश उन विधायकों के प्रति भी दिखाना चाहिए जिन्होंने प्रधानाचार्य की सीमित विभागीय परीक्षा का विरोध किया या फिर जो शिक्षक सीमित विभागीय पदोन्नति परीक्षा में भी पेंच डाले हुए हैं या फ़िराक़ में हैं, उनका विरोध भी करना चाहिए। वैसे शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत को उन विधायकों के पत्र अब सार्वजनिक कर देने चाहिए जो उत्तराखंड के स्कूलों में प्रधानाचार्य पदोन्नति परीक्षा के विरोध में थे, और आज उन्हें जिन विधायकों के ऐसे पत्र के कारण सार्वजनिक मंचों पर विरोध झेलना पड़ रहा है।