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Thursday, February 6, 2025

समुद्र तक दिख रहा है हिमालय से छेड़छाड़ का असर

समुद्र तक दिख रहा है हिमालय से छेड़छाड़ का असर

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला 

मानसून में देश के पहाड़ी राज्यों के आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में कुल जमीन में से 12 फ़ीसदी जमीन ऐसी है जो भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील है। भूस्खलन के लिहाज से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अलावा देश के पश्चिमी घाट में नीलगिरि की पहाड़ियां, कोंकण क्षेत्र में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा, आंध्र प्रदेश का पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में दार्जिलिंग, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड के कई इलाके भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। मानसून में देश के पहाड़ी राज्यों में पहाड़ों से चट्टानों के खिसकने से भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। साल दर साल भूस्खलन से सैकड़ों लोगों मौत के मुंह में समा जाते हैं तो वहीं करोड़ों रुपये का नुकसान होता है। दरअसल, आधुनिक विकास कार्यों के चलते पहाड़ी अंचलों में होने वाले खनन, जंगलों की कटाई और पनबिजली योजनाओं से पहाड़ की पारिस्थितिकी प्रभावित हुई है। जिससे हर वर्ष प्रकृति का यह कहर मानवता को भारी कीमत देकर चुकानी पड़ रही है हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में पिछले दिनों कई बार भूस्खलन की घटनाएं देखने को मिली हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य और भारी बारिश से पहाड़ों से चट्टानों की घटनाएं हर साल बढ़ती जा रही हैं। भूस्खलन से सबसे अधिक नुकसान विकासशील देशों में हो रहा है। पिछले कुछ समय से दुनिया भर में इसके कारण होने वाले नुकसान के संबंध में चर्चा की जा रही है और आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। रेल सेवाएं, हाईवे समेत कई सड़क मार्ग बंद हो जाते हैं और कई बार नदियां अपना रास्ता बदल लेती हैं। भूस्खलन के कारण भारत को हर साल 150-200 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। हिमालय भारत के लिए महज एक भौगोलिक संरचना नहीं है, बल्कि देश की जीवन रेखा है। नदियों का जल हो या मानसून की गति-सब कुछ हिमालय के पहाड़ तय करते हैं। यह दुनिया का युवा पहाड़ है और इसमें लगातार आंतरिक गतिविधियां होती रहती हैं। त्रासदी से सबक न लेते हुए पहाड़ पर बेशुमार सड़कें बिछाने का जो दौर शुरू हुआ है, उससे आए दिन मलबा खिसकने, जंगल गायब होने जैसी त्रासदियां हो रही हैं। खासकर जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं।देश को गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियां देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने के कगार पर हैं। ऐसे में बगैर किसी आकलन के महज यातायात के लिए हिमालय की छाती खोदना अनिष्टकारी त्रासदी का आमंत्रण प्रतीत होता है। यह एक ऐसे पहाड़ और वहां के लोगों को खतरे में धकेलने जैसा है, जिसे जोन-4 स्तर का अति भूकंपीय संवेदनशील इलाका कहा जाता है। सुरंग बनाने के लिए पेड़ भी काटे जाएंगे और हजारों जीवों के प्राकृतिक पर्यावास पर भी डाका डाला जाएगा। नंदा देवी ग्लेशियर के टूट कर धौलीगंगा में गिरने से भी भारी तबाही हुई थी। तथा रैणी गांव के पास बन रही दो परियोजनाओं- एन टी पी सी की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना और ऋषि गंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को तबाह कर दिया था। और इन परियोजनाओं में काम कर रहे 200 से ज्यादा मजदूरों की मौत हो गयी थी। उत्तराखण्ड को देवताओं का वास कहा जाता है। इसलिए जैसे ही कोई इस तरह की आपदा आती है तो इनको प्राकृतिक या दैवीय आपदा कहकर सरकार अपना पल्ला छुड़ा लेती है। जब भी ऐसी कोई आपदा घटित होती है तो सरकार व प्रशासन नींद से जागता है। केन्द्रीय आपदा व राज्य आपदा की मशीनरी हरकत में आती है। और फिर कुछ समय बाद दुर्घटना पर लीपा पोती करने के बाद कुम्भकर्ण की नींद सो जाती हैं और फिर तब जागती हैं जब फिर इस तरह की कोई दुर्घटना हो जाती है। यह सही है कि पर्यटन बढऩे से पहाड़ी लोगों की आमदनी बढ़ी है। पर ऐसी आमदनी का क्या लाभ, जो जीवन के नैसॢगक सुख और सौंदर्य को छीन ले। इन पहाड़ों को देखकर मुझे वही शे’र याद आया कि ‘जिसे सदियों से संजो रखा था, उसे अब भुलाने को दिल चाहता है।यह तर्क ठीक नहीं कि आबादी या पर्यटन बढऩे से यह नुक्सान हुआ है। गत वर्षों से कई बार यूरोप के पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र स्विट्जरलैंड है, पर इन वर्षों में इस तरह की गिरावट का एक भी चिह्न देखने को वहां नहीं मिला। स्विट्जरलैंड की सरकार हो या यूरोप के अन्य पर्यटन केंद्रों की सरकारें, अपने प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव को बिगडऩे नहीं देतीं। पर्यटन वहां भी खूब बढ़ रहा है, पर नियोजित तरीके से उसको संभाला जाता है और धरोहरों और प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति किसी को नहीं है। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?यही बात प्रधान मंत्री जी द्वारा घोषित सौ ‘स्मार्ट सिटीज’ के संदर्भ में भी लागू होती है। ऊपरी टीम-टाम के चक्कर में बुनियादी ढांचे को सुधारने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वाराणसी का उदाहरण सामने है। जिसे जापान के प्राचीन शहर क्योटो जैसा बनाने के लिए भारत सरकार ने पिछले सालों में दिल खोल कर रुपया भेजा। कि ब्रज की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत की अवहेलना करके उसे विकास के नाम पर विद्रूप किया जा रहा है। देश, दुनिया में बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक भूस्खलन से जहां हर साल हजारों इंसानों को अपनी जिंदगी बचानी पड़ती है। वहीं अरबों की संपत्ति का नुकसान होता है। उत्तराखंड में सरकार और शासन इसके प्रति गंभीर नजर नहीं आते। वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी जैसे वैज्ञानिक संस्थानों को भी भूस्खलन के कारणों के विस्तृत अध्ययन करने व रोकने को लेकर ठोस उपायों की सिफारिश देने के लिए नहीं लगाया गया है।सरकार और तमाम वैज्ञानिक संस्थान कितने संवेदनशील हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे उत्तराखंड में भूस्खलन पर निगरानी को लेकर कहीं भी अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं लगाए गए हैं। वैज्ञानिकों की ओर से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश समेत देश के हिमालयी राज्यों में भूस्खलन को लेकर समय-समय पर अध्ययन किए जा रहे हैं। हाल ही में वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड के नैनीताल और मसूरी जैसे इलाकों में भूस्खलन को लेकर विस्तृत अध्ययन किया है और जिसकी रिपोर्ट भी सरकार शासन को सौंपी गई। लेकिन ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को लेकर अभी कुछ किया जाना बाकी है। जमीन और विस्थापन की समस्या विकास योजनाओं और वन संरक्षण की नीति से जुड़ी हुई है. उनके मुताबिक वन भले ही 47% पर हों लेकिन आज 72% ज़मीन वन विभाग के पास है. वह याद दिलाते हैं कि भूस्खलन और आपदाओं के कारण लगातार जमीन का क्षरण हो रहा है और सरकार के पास आज उपलब्ध जमीन का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है. “958-64 के बीच आखिरी बार राज्य में जमीन की पैमाइश हुई. उसके बाद से पहाड़ में कोई पैमाइश नहीं हुई है. ऐसे में न्यायपूर्ण पुनर्वास कैसे कराया जा सकता है?” प्राकृतिक आपदाओं और पहाड़ के बीच संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। पहाड़ों पर बेतहाशा निर्माण, यांत्रिकी कार्यों से पहाड़ों पर लगातार भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है। जानकारों की मानें तो खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी और रहने के लिए कम ढाल वाली जमीन मिल जाने के कारण पहाड़ों में अधिकांश बस्तियां संवेदनशील स्थानों पर बसी हैं। इसी कारण राज्य का 80 प्रतिशत हिस्सा अस्थिर ढलानों पर होने के कारण भूस्खलन की परिधि में है और अधिकांश घटनाएं भी इन्हीं इलाकों में घट रही हैं। यदि समय रहते नहीं चेते तो भविष्य में इस तरह की घटनाएं और भी बढ़ने की आशंका है।  प्राकृतिक आपदाओं और पहाड़ के बीच संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। पहाड़ों पर बेतहाशा निर्माण, यांत्रिकी कार्यों से पहाड़ों पर लगातार भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है। जानकारों की मानें तो खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी और रहने के लिए कम ढाल वाली जमीन मिल जाने के कारण पहाड़ों में अधिकांश बस्तियां संवेदनशील स्थानों पर बसी हैं। इसी कारण राज्य का 80 प्रतिशत हिस्सा अस्थिर ढलानों पर होने के कारण भूस्खलन की परिधि में है और अधिकांश घटनाएं भी इन्हीं इलाकों में घट रही हैं। यदि समय रहते नहीं चेते तो भविष्य में इस तरह की घटनाएं और भी बढ़ने की आशंका है।प्राकृतिक आपदाओं और पहाड़ के बीच का संघर्ष प्रकृति की उत्पत्ति के साथ ही शुरू हो गया था और यह संघर्ष अनवरत रूप से आज भी जारी है। विधि आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष ने वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन का हवाला देते हुए बताया कि पहाड़ में लगातार भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है, इसका प्रमुख कारण क्षमता की अनदेखी कर बेतहाशा निर्माण कार्य है। सरकार की ओर से की जाने वाली लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण चमोली जिले का जोशीमठ नगर है। जोशीमठ बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी जाने वालों का प्रमुख पड़ाव है। पिछले कुछ समय से जोशीमठ लगातार धंस रहा है। यहां सड़कों, खाली जमीन और घरों पर दरारें पड़ रही हैं, जो लगातार चौड़ी होती जा रही हैं। जोशीमठ के सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि उन्होंने इस बारे में कई पत्र संबंधित अधिकारियों को भेजे हैं। वे पूरे क्षेत्र का भूगर्भीय सर्वेक्षण करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन, ऐसा कोई सर्वेक्षण नहीं हो रहा है। पिछले महीने जिला प्रशासन ने एक टीम जरूर भेजी थी, जो कुछ जगहों पर दरारों की चौड़ाई नाप कर चली गई। इसके अलावा कोई कदम नहीं उठाया गया है, जबकि स्थितियां लगातार गंभीर होती जा रही हैं। जोशीमठ के मामले में 1976 में तत्कालीन गढ़वाल आयुक्त महेश चन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि जोशीमठ के साथ ही पूरी नीती और माणा घाटी भी भूस्खलन के मामले में बेहद संवेदनशील है। इसके बावजूद यहां बड़ी-बड़ी परियोजनाएं खड़ी की गई हैं, जिनके बेहद गंभीर नतीजे निकट भविष्य में सामने आ सकते हैं। हाड़ी राज्यों में भी पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जा रहा है. बछेंद्री पाल को हरिद्वार की हरित धरा संस्था ने अपना हिमालयन एम्बेसडर बनाया है.हरिद्वार में हरित धरा संस्था द्वारा पर्यावरण पर आधारित एक गोष्ठी में बछेंद्री पाल आई थीं. बछेंद्री पाल ने कहा कि तथाकथित विकास के नाम पर हिमालय पर्वत में जो बदलाव हो रहे हैं, उसका बुरा असर पहाड़ों में ही नहीं मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ रहा है. इसलिए देश में संतुलित विकास होना चाहिए.

लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

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