15.2 C
Dehradun
Friday, November 22, 2024

ग्लेशियर की जड़ में बनी झीलों को वक्त रहते पंक्चर किया जाएगा, जो कई बार बड़ी तबाही का कारण बनता है।

प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर के मुहानों पर बनी बड़ी झीलों को वक्त रहते पंक्चर (जमा पानी की निकासी) कर दिया जाएगा, ताकि वह आगे चलकर बड़ी तबाही का कारण न बनें। विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों की ओर से ऐसी झीलों पर सेंसर रिकॉर्डर, रडार और हाई रेजुलेशन कैमरों की मदद से नजर रखी जा रही है। प्रदेश का आपदा प्रबंधन विभाग इस दिशा में नए सिरे से कार्ययोजना पर काम कर रहा है।

उत्तराखंड में वर्ष 2013 में आई केदारनाथ आपदा और वर्ष 2021 में चमोली की नीती घाटी में ग्लेशियर में बनी झीलों के टूटने से हुई तबाही के मंजर को लोग आज तक नहीं भूले हैं। दोनों ही आपदाओं में सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी और खरबों रुपये की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। भविष्य में ऐसी आपदाओं से बचा जा सके, इस दिशा में प्रदेश का आपदा प्रबंधन विभाग काम कर रहा है।

उत्तराखंड में 300 ग्लेशियर झीलें हैं खतरनाक
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक व ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. मनीष मेहता ने बताया कि उत्तराखंड में 300 झीलें ऐसी हैं, जो ग्लेशियर के मुहाने पर बनी हैं, इन्हें प्रो ग्लेशियर झील कहा जाता है और यह खतरनाक श्रेणी में आती हैं। वर्ष 2013-14 तैयार सूची के अनुसार उत्तराखंड में ग्लेशियर झीलों की संख्या 1266 है, जो करीब 7.5 वर्ग किमी क्षेत्रफल में मौजूद हैं। इनमें से 809 झीलें ऐसी हैं, जो बनती और टूटती रहती हैं, इन्हें सुपरा झील कहा जाता है। इसके अलावा कुछ झीलें ऐसी हैं, जो ग्लेशियर के पिछले भाग में बनती हैं, इन्हें सर्क झील कहा जाता है, इनके टूटने का खतरा नहीं रहता है, जैसे हेमकुंड साहिब में बनी झील। इनकी संख्या 48 है। इसके अलावा कुछ झीलें ऐसी हैं, जो ग्लेशियर के खत्म होने के अगल-बगल बनती हैं, इन्हें मोरन झील कहा जाता है।
 
इनका कहना है
उन्होंने कहा कि प्रदेश में ग्लेशियर के ऊपर बनी झीलों की लगातार मॉनिटरिंग की जा रही है। जो झीलें भविष्य में खतरा बन सकती हैं, उन्हें वक्त रहते कैसे पंक्चर कर डिस्चार्ज किया जाए, इस दिशा में वैज्ञानिक संस्थाओं के साथ कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं। फिलहाल ऐसी झीलों पर सेंसर रिकॉर्डर, रडार और हाई रेजोल्यूशन कैंमरों की मदद से नजर रखी जा रही है । – डॉ. रंजीत सिन्हा, सचिव, आपदा प्रबंधन विभाग

 

यह एक सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक विचार है। वाडिया संस्थान की ओर से पहले भी ऐसे ऑपरेशन को अंजाम दिया जा चुका है। झीलों को पंक्चर कर डिस्चार्ज करने से पहले कई वैज्ञानिक और व्यवहारिक पहलुओं की जांच जरूरी है। जरूरत पड़ने पर ऐसा किया जा सकता है। कई देशों में इस तरह के प्रयोग आम हैं। – डॉ. कालाचंद साईं, निदेशक, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी

Related Articles

Stay Connected

0FansLike
3,912FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles