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Monday, September 25, 2023

उत्तराखंड में सत्ताधारियों की निष्क्रियता से नही आया भू कानून…….?

उत्तराखंड में भू-कानून एक सपना है, राज्यहित के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि सरकार को बड़ा दिल दिखाने की आवश्यकता है। वर्ष 2000 में पहाड़ी राज्य की स्थापना के साथ ही कड़े भू कानून को लेकर सियासत शुरू हो गई थी और लगातार समय-समय पर आवाज उठती रही। सशक्त भू और भूमि सुधार कानून की आवश्यकता उत्तराखंड को पहले ही दिन से थी, क्योंकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि सत्ताधारियों ने सख्ती नहीं की और राज्य के लोगों ने ही बाहरी लोगों को जमीनें बेचीं। उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के अनुसार बाहरी व्यक्ति साढ़े 12 एकड़ जमीन खरीद सकता था।

उत्तराखंड में 2002 में बाहरी व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर की गई, मगर नगर निकाय को इस सीमा से बाहर रखा गया यानी शहरों में यह कानून लागू नहीं होता था। जाहिर सी बात है, वहां बड़ी मात्रा में भूमि की खरीद-बिक्री हुई, क्योंकि सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इसके बाद 2007 में भाजपा की सरकार आई और तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी ने अपने कार्यकाल में पूर्व में तय सीमा को आधा कर 250 वर्ग मीटर कर दिया, लेकिन पुन: यह सीमा शहरों में लागू नहीं होती थी। हालांकि 2017 में जब दोबारा भाजपा सरकार आई तो इस अधिनियम में संशोधन करते हुए प्रविधान कर दिया गया कि अब औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि खरीदे तो इस भूमि को खरीदने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी होगी।

औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाते ही उसका भू उपयोग अपने आप बदल जाएगा और वह गैर कृषि हो जाएगी। इसी के साथ गैर कृषि व्यक्ति द्वारा खरीदी गई जमीन की सीमा को भी समाप्त कर दिया गया। अब कोई भी कहीं भी जमीन खरीद सकता था। उत्तराखंड में पिछले 22 वर्षों में पहाड़ के पहाड़ बिक चुके हैं। हालांकि इसके पक्ष में बोलने वाले लोगों का तर्क है कि इससे उत्तराखंड की प्रगति रुकेगी, लेकिन राज्य के युवा सख्त कानून की मांग कर रहे हैं। इसके लिए वे पड़ोसी राज्य हिमाचल के भू कानून का उदाहरण दे रहे हैं और उसी तर्ज पर उत्तराखंड में भी भू कानून की मांग कर रहे हैं।

उत्तराखंड के पड़ोसी राज्य हिमाचल में कानूनी प्रविधानों के चलते कृषि भूमि खरीद लगभग नामुमकिन है, क्योंकि 25 जनवरी 1971 को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलते ही हिमाचल प्रदेश में सरकार ने हिमाचल टेनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 लागू किया। इसकी धारा 118 में प्रविधान है कि कोई भी जमीन, जो कृषि भूमि है, उसे किसी गैर-कृषि कार्य के लिए नहीं बेचा जा सकता। यदि धोखे से बेच भी दी जाए तो जांच के उपरांत यह जमीन सरकार में निहित हो जाएगी। जमीन, मकान के लिए भूमि खरीदने के लिए सीमा निर्धारित है और यह भी प्रविधान है कि जिससे जमीन खरीदी जाए, वह जमीन बेचने के कारण आवासविहीन या भूमिविहीन नहीं होना चाहिए। यह कानून 20 वर्षों से अधिक समय से हिमाचल में रहने वालों को विशेषधिकार प्रदान करता है।

हिमाचल प्रदेश काश्तकारी और भूमि सुधार अधिनियम, 1972 की धारा 118 किसी भी तरह विशेष रूप से उद्योग, पर्यटन, जल विद्युत और अन्य क्षेत्रों में निवेश को बाधित नहीं करती। इसी कारण हिमाचलवासी धारा 118 को राज्य और उसकी जनता के हित में पवित्र मानते हैं और चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों इसके साथ छेड़छाड़ करने को तैयार नहीं हैं। यह कानून हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डा वाईएस परमार द्वारा राज्य को बाहरी लोगों द्वारा खरीदे जाने से बचाने के लिए लाया गया था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अधिकांश हिमाचलियों को लगता है कि धारा 118 को बिल्कुल भी छेड़ा नहीं जाना चाहिए, न ही निरस्त किया जाना चाहिए।

चाहे भाजपा की सरकार हो या कांग्रेस की, कोई भी सरकार इस कानून के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहती, क्योंकि जनता इस धारा को अपने संरक्षण हेतु आवश्यक मानती है और हिमाचल में उद्योग भी स्थापित हैं। प्रदेश प्रगति भी कर रहा है साथ ही अपने संस्कृति और भूमि की रक्षा भी कर रहा है।

उत्तराखंड की जनता और सरकार को यह दृढ़ निश्चय करना होगा कि वे विकास किस तर्ज पर चाहते हैं? इस संदर्भ में यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं-बाढ़, भूस्खलन आदि सभी बातों को संज्ञान में लेकर सशक्त भू कानून बनाया जाए ताकि उत्तराखंड के चंहुमुखी विकास में कोई बाधा न आए और निवेशक उद्योग भू कानून को मानते हुए ही यहां निवेश करें ताकि युवाओ को रोजगार मिले और देवभूमि का संरक्षण हो। उम्मीद की जाती है कि इस चुनावी मौसम में राजनीतिक दल जनता की मांग पर गंभीरता से ध्यान देंगे।

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