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Thursday, April 25, 2024

भूस्खलन की घटनाओं में क्यों हो गई है बढ़ोतरी?

भूस्खलन की घटनाओं में क्यों हो गई है बढ़ोतरी?

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देश में कुल भूमि का करीब 12 फीसदी हिस्सा भूस्खलन से प्रभावित है, जहां आए दिन भूस्खलन होता है. ये क्षेत्र भूस्खलन के लिहाज से काफी संवेदनशील है. उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अलावा देश के पश्चिमी घाट में नीलगिरि की पहाड़ियां, कोंकण क्षेत्र में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा, आंध्र प्रदेश का पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में दार्जिलिंग, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड के कई इलाके भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं.उत्तराखंड में भी हाल के दिनों में ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के एक पैनल की एक रिपोर्ट भी आई है, जिसमें धरती पर मौसम की अप्रत्याशित घटनाओं में इजाफे की चेतावनी दी गई है। जलवायु परिवर्तन के चलते कहीं बहुत ही ज्यादा गर्मी पड़ेगी तो कहीं बादल फटने जैसी घटनाएं होंगी। सवाल है कि भूस्खलन की घटनाओं में अचानक इजाफे की वजह क्या है?हिमालय के क्षेत्र इसकी अनूठी चट्टानी विशेषताओं के कारण बड़े भूस्खलन की संभावना रखते हैं। ये चट्टानें दरारों से भरी हुई हैं। किसी भी बाहरी गतिविधि से इसकी सतहों की एकजुटता और टकराव की स्थिति में काफी कमी आ जाती है, जो भूस्खलन के लिए ज्यादा अनुकूल स्थिति पैदा कर देती है। प्रोफेसर के मुताबिक दरारों में पानी घुसने से ढलानों पर दबाव और ज्यादा बढ़ जाता है, और ऊपर के सतहों से पानी के बहाव से हिमालय के क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं होती हैं। इसके अलावा पहाड़ी इलाके से वनों की कटाई और कंक्रीट का जंगल बिछाने के लिए वनस्पतियों का विनाश भी इस समस्या की बड़ी वजह बन चुका है। वनस्पतियों की जड़ें चट्टानों और मिट्टी को बांधकर रखती हैं, लेकिन उनकी कटाई से पानी उसके अंदर घुसकर उनके मजबूत जोड़ को कमजोर कर देता है।भूस्खलनों में जलवायु परिवर्तन का बहुत बड़ा रोल है, क्योंकि यह मौसम के पैटर्न में बदलाव से जुड़ा है। इसके चलते दुनियाभर में मौसम की अप्रत्याशित घटनाएं देखने को मिल रही हैं। कहीं बहुत ज्यादा बारिश और बाढ़ का संकट पैदा हो रहा है तो कहीं अत्यधिक गर्मी पड़ने से जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भारत में भी मानसून में परिवर्तन नजर आता है और लगता है कि इसकी अवधि बढ़ गई है। पहाड़ी इलाकों में बादल फटने की घटनाओं में काफी ज्यादा इजाफा हुआ है। इसके चलते भी चट्टानों और मिट्टी के बीच की पकड़ ढीली पड़ रही है।भारतीय भूभाग का 17 प्रतिशत हिस्सा भूस्खलन से प्रभावित है और ज्यादातर बार यह मानवीय गतिविधियों के साथसाथ बारिश की वजह से होता है। यदि ढलान में जमा हो रहा पानी बाहर नहीं निकलता है, तो यह अधिक दबाव बनाता है और भूस्खलन की बड़ी संभावना बन जाती है।उनके मुताबिक ढलानों में पानी जमा हो, उसके लिए ड्रेनेज के उपाय खोजे जाने चाहिए।जियोलॉजिकल सर्वे के मुताबिक लुढकने (भूस्खलन) की घटनाएं तब होती हैं, जब गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पृथ्वी की सामग्रियों की शक्ति पर भारी पड़ता है। ऐसी स्थिति कई वजहों से पैदा हो सकती है, जिनमें बारिश, हिमपात, जल स्तर में बदलाव, धारा का कटाव, भूजल में परिवर्तन, भूकंप, ज्वालामुखी गतिविधि और इंसानी गतिविधियों की वजह से पैदा होने वाले उपद्रव। अभी जिन इलाकों में भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं, उनके अलावा जिन क्षेत्रों में भूस्खलन का खतरा है, क्यों दहाड़ रहे पहाड़ और बरस रहीं चट्टानें, हर साल करोड़ों रुपये का नुकसान उत्तराखंड के कुमाऊं में कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण भारी नुकसान हुआ और जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। भूस्खलन के चलते कई मुख्य राजमार्ग बंद हो गये हैं और उच्च हिमालयी क्षेत्र में छह सड़कें बंद होने से चीन सीमा से सम्पर्क कट गया है। नैनीताल-हल्द्वानी के बीच भी शनिवार सुबह रोड धंसने से यातायात बाधित हुआ है।अतिवृष्टि की सबसे अधिक मार सीमांत जनपद पिथौरागढ़ पर पड़ी है। यहां भारी बारिश के कारण 19 सड़कें बंद हो गयी हैं। धारचूला, मुनस्यारी और बंगापानी क्षेत्र में सबसे अधिक नुकसान की सूचना है। आपदा नियंत्रण कक्ष से मिली जानकारी के अनुसार देर रात को यहां दो आवासीय मकान क्षतिग्रस्त होने की सूचना है। धापा में भी लगातार भूस्खलन हो रहा है। धारचूला तहसील के बलुवाकोट के जोशी गांव में पिछले तीन दिन से लापता महिला का कोई सुराग नहीं लग पाया है। यहां 10 परिवार भी भूस्खलन की जद में आ गये हैं।यहां बादल फटने से भारी मलबा आ गया था और एक महिला पशुपति देवी मलबे की चपेट में आग गयी थी। वह तभी से लापता है। पिछले तीन दिनों से यहां राष्ट्रीय एवं राज्य आपदा प्रबंधन बल के साथ ही पुलिस एवं राजस्व कर्मियों की टीम राहत एवं बचाव कार्य चला रही है।
मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ) पिछले तीन दिनों से गांव में कैम्प में रह रहे हैं जबकि जिलाधिकारी भी आज प्रभावित गांव का दौरा कर रहे हैं। अतिवृष्टि के चलते पिथौरागढ़ का चीन सीमा से भी सम्पर्क कट गया है। यहां चीन सीमा को जोड़ने वाले छह मार्ग मलबा आने और धंसने से बंद हो गये हैं। उच्च हिमायली क्षेत्र में स्थित ये सभी सड़कें सीमा सड़क संगठन एवं केन्द्रीय लोक मिर्नाण विभाग के जिम्मे हैं। बंद पड़ी इन सड़कों में जौलजीबी-मुनस्यारी, पिथौरागढ़ -तवाघाट, तवाघाट-घटियाबगड़, तवाघाट-सोबला, घटियाबगड़-लिपूलेख, सोबला-दर-तिदांग शामिल हैं। घटियाबगड़ एवं लिूपलेख के बीच भारी चट्टान खिसकने से रोड बंद है। इससे व्यास घाटी का सम्पर्क कट गया है। इसी प्रकार सोबला-दर-तिदांग राष्ट्रीय राजमार्ग भी अतिवृष्टि के चलते कई जगहों में बह गया है। सभी मार्गों की मरम्मत का काम चल रहा है। बागेश्वर जनपद में भी बारिश के चलते सड़कों पर असर पड़ा है। यहां आठ सड़कें मलबा आने से बंद हो गयी हैं। बागेश्वर के कांडा में बस अड्डे के पास एक कार पर विशालयकाय पेड़ के गिरने से कार को भारी नुकसान हुआ है। हालांकि यहां फिलहाल किसी प्रकार के जनहानि की सूचना नहीं है। पिथौरागढ़ और बागेश्वर में नदियों का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है।नैनीताल में भी कल देर रात बारिश आफत लेकर आयी और हल्द्वानी-नैनीताल के बीच डॉन बास्को स्कूल के पास आज सुबह सड़क का एक बड़ा हिस्सा धंस गया। जिससे नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर एवं पिथौरागढ़ के लिए भारी वाहनों की आवाजाही बाधित हो गयी है। हल्द्वानी-भीमताल मार्ग पहले ही भूस्खलन के चलते ठप पड़ा हुआ है। भवाली-ज्योलिकोट के बीच बीर भट्टी के पास कई दिनों से लगातार हो रहे भूस्खलन से पहले ही आवाजाही ठप है।नैनीताल- हल्द्वानी के बीच सड़क धंसने से प्रशासन अब पहाड़ों को जाने वाले भारी वाहनों को रामनगर-मोहान के रास्ते भेज रहा है। नैनीताल की वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) ने लोगों को इन दिनों बहुत जरूरी होने पर ही यात्रा करने की सलाह दी है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन की लगातार बढ़ती घटनाओं के लिए बेतरतीब निर्माण कार्य और जलवायु परिवर्तन अहम वजह है।  राज्य आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र डीएमएमसी के पूर्व अधिशासी निदेशक बताते हैं कि राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षों से मानवीय गतिविधि बहुत ज्यादा बढ़ गई है। निर्माण कार्यों की वजह से पहाडों के प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहे हैं। मसलन, एक पहाड़ का एक तय स्लोप होता है। पहाड़ों में लगातार बड़ी बड़ी परियोजनाओं पर काम चल रहा है। चाहे वह जल विद्युत परियोजना हो या ऑल वेदर रोड या बड़ी बड़ी सुरंग परियोजना। सभी में बड़े पैमाने पर पहाड़ों में कटिंग हुई है। जिसने नए भूस्खलन जोन पैदा कर दिए हैं। यही नहीं, पुराने भूस्खलन जोन भी सक्रिय कर दिए हैं। उत्तराखंड में बीते सालों से लगातार भूस्खलन और फ्लैश फ्लड की घटनाएं होती रही है. इसका कारण यह है कि दुनिया का तापक्रम किसी भी रूप में जरा सा भी कहीं पर बढ़ता है तो उसका पहला और सबसे बड़ा असर हिमालय पर पड़ता है. इस पूरी ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज (की वजह से हिमालय और संवेदनशील होता जा रहा है.वहीं, बीते एक दशक में उत्तराखंड में कई फ्लैश फ्लड चुके हैं. इसका मुख्य कारण तापक्रम की अनियमितता और बारिश का रुख बदला होना लगता है. इस परिस्थिति में जब कार्बन एमिशन ज्यादा होता है तो यह तापक्रम को औसतन बढ़ा देता है और जब तापक्रम बढ़ जाता है तो उसका सीधा असर मॉनसून की गति और दिशा में भी पड़ता है.इसके साथ ही जब मैदानी इलाकों में उमस बढ़ती है तो यह उमस हवा के साथ पहाड़ों में जाती है और जैसी तापक्रम नीचे आता है वहां एक साथ बारिश होने लगती है, जिससे पहाड़ों में भूस्खलन और फ्लैश फ्लड की घटनाएं बढ़ रही हैं. दुनिया का तापक्रम कहीं पर भी अगर बढ़ रहा है तो उसका पहला और बड़ा असर हिमालय पर पड़ रहा है. इस वजह से हिमालय और संवेदनशील हो गया है. उन्होंने आईपीसीसी की रिपोर्ट को आधार बनाते हुए कहा कि यदि आने वाले सालों की कल्पना करें तो सबसे ज्यादा नुकसान प्रकृति, पर्यावरण को होगा और यह डिजास्टर हिमालय में ही होगा और इसके चिन्ह भी दिखाई देने लग गए हैं. बिना किसी बरसात के तटबंध टूटने या मीलों दूर से पहाड़ों में हुई बरसात से अचानक आई बाढ़ को फ्लैश फ्लड कहते हैं. पर्यावरणविदों के अनुसार इसका एक संभावित कारण है कि हिमालय और संवेदनशील होता जा रहा है जब जलवायु परिवर्तन के कारण देश आपदाओं की आशंकाओं से चौतरफा जूझ रहा है, तब हमें आपदा प्रबंधन की तमाम क्षमताओं और संसाधनों को संयोजित करके रखना चाहिए। साथ ही दुनिया में उपलब्ध आधुनिक तकनीकों का हस्तांतरण और वित्तीय संसाधनों की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के रौद्र को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग लिया जाना चाहिए। सरकार को विकास के नाम पर पारिस्थितिकी को नष्ट करने के बजाय जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संरक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए। लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

 

 

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