देहरादून। विधानसभा में बैक डोर भर्तियों या सिफ़ारिशी चिट्ठियों में भर्तियों को लेकर प्रदेश के नेता जितने निर्लज्जतापूर्ण तरीके से अपने कृत्यों को सही ठहरा रहे हैं ऐसी घटिया मिसालें हालिया समय में नहीं नज़र आतीं।
एक के बाद एक नेताओं के रिश्तेदारों, परिचितों के बैकडोर से सरकारी नौकरी लगाने की ख़बरें आ रही हैं लेकिन मजाल है कि किसी ने भी ज़रा सी भी शर्मिंदगी महसूस या ज़ाहिर की हो। सभी इस भ्रष्टाचार को सही ठहरा रहे हैं। कलयुग से आगे भी युग हो तो वह शायद आ गया है।
आर्टिकल 187 नहीं, भर्ती नियमावली 30(2)
यहां बात गोविंद कुंजवाल की जिन्होंने ‘असाधारण परिस्थितियों’ में 158 भर्तियां कीं जिनमें उनके बेटे-बहू भी शामिल थे। कुंजवाल यह भी स्वीकार कर चुके हैं कि अन्य मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री और अधिकारियों की सिफ़ारिश पर उन्होंने भर्तियां कीं।
हालांकि गोविंद कुंजवाल संविधान के आर्टिकल 187 को कोट कर रहे हैं लेकिन उससे उन्हें मनमानी के अधिकार नहीं मिलते।
इस अधिकार का इस्तेमाल उत्तराखंड विधानसभा सचिवालय सेवा भर्ती नियामवली के नियम 30 (2) के हवाले से इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
हरीश रावत गैरसैंण में सत्र करवाने की जल्दबाज़ी या बेचैनी को वह असाधारण परिस्थितियां बता चुके हैं जिनकी वजह से उत्तराखंड के आमजन और बेरोज़गार युवाओं के हकों पर डाका डाला गया।
गोविंद कुंजवाल और हरीश रावत दोनों ही यह दावा कर रहे हैं कि कुंजवाल के समय की गई भर्तियों को हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी लेकिन कोर्ट ने सभी नियुक्तियों को जायज़ ठहराया।कुंजवाल तो अपने बेटे-बहू और दूसरे जुगाड़ से की गई दूसरी भर्तियों पर सवाल उठाने को अदालत की अवमानना तक करार दे रहे हैं।
लेकिन न गोविंद कुंजवाल और न ही हरीश रावत यह बता रहे हैं कि कुंजवाल ने कैसे अपने एक रिश्तेदार को जो दूसरे विभाग में क्लर्क था सीधे विधानसभा में अपर सचिव बना दिया था और यह मामला अभी तक हाईकोर्ट में चल रहा है।
इतना दक्ष कि क्लर्क से सीधे अपर सचिव
तो हुआ यूं कि गोविंद कुंजवाल के विधानसभा अध्यक्ष रहते विधानसभा सचिवालय में अपर सचिव की एक पोस्ट खाली हुई।
शायद देवताओं की कृपा से कुंजवाल के एक रिश्तेदार मदन कुंजवाल को यह जानकारी हो गई। मदन कुंजवाल एक अन्य विभाग में क्लर्क के पद पर काम कर रहे थे।
उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को एक पत्र लिखकर इस पद पर नियुक्त करने की इच्छा व्यक्त की और बतौर विधानसभा अध्यक्ष गोविंद कुंजवाल ने उन्हें नियुक्त करने का आदेश जारी कर दिया।
यहां ज़रा ठहरकर तब मुख्यमंत्री रहे हरीश रावत का वह वक्तव्य याद कर लेते हैं जो उन्होंने हाल ही में इन नियुक्तियों को जायज़ ठहराते हुए जारी किया था।
गोविंद कुंजवाल के कृत्य का समर्थन करते हुए हरीश रावत ने कहा कि, “विधानसभा का नेचर ऑफ़ वर्क है वह बहुत कठिन हैं… उसी तरह बजट आदि के मामले में आपको सारे प्रावधानों का पालन करना पड़ता है. उसके लिए स्टाफ़ चाहिए, दक्ष स्टाफ़ चाहिए.”
जो बात हरीश रावत अब कर रहे है यही बात विधानसभा में कार्यरत डॉक्टर सुनील हरिव्यासी ने 2016 में कही। वह संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय विधान परिषद में काम कर रहे थे और उत्तराखंड की विधानसभा के गठन के समय यहां आ गए थे। वह अपर सचिव पद बनने के लिए उपलब्ध सबसे योग्य उम्मीदवार थे क्योंकि न सिर्फ़ वह सबसे वरिष्ठ थे बल्कि अनुभव भी उनके पास था।
हरीश रावत जिस दक्षता की बात कर रहे हैं वह डॉक्टर सुनील हरिव्यासी के पास था, क्लर्क से सीधे अपर सचिव बने मदन कुंजवाल के पास नहीं।
आम आदमी ये भी नहीं थे
डॉक्टर सुनील हरिव्यासी के बारे में एक बात और जानने योग्य है।डॉक्टर सुनील हरिव्यासी उत्तरांचल (तब यही नाम मिला था) के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के रिश्तेदार थे।अब वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद में मेरिट पर लगे थे या नहीं, इस बारे में अभी हमारे पास कोई जानकारी नहीं है।
एक तथ्य और डॉक्टर सुनील हरिव्यासी की पत्नी भी उत्तर प्रदेश विधान परिषद में नौकरी कर रही थीं और उन्हें भी उत्तराखंड विधानसभा में समायोजित कर लिया गया था।
यहां आप कह सकते हैं कि गोविंद कुंजवाल और हरीश रावत नियुक्तियों की जिस परंपरा को जारी रखने की बात कह रहे थे शायद वह उत्तर प्रदेश से ही आई थी।
डॉक्टर सुनील हरिव्यासी ने मदन कुंजवाल की नियुक्ति को नैनीताल हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।उनके वकील दुष्यंत मैनाली बताते हैं कि हाईकोर्ट ने न तो मदन कुंजवाल की नौकरी पर स्टे लगाया, न ही इस मामले पर न कोई फ़ैसला लिया।
बाद में यह भी पता चला कि इस केस की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश भी कुंजवाल के रिश्तेदार थे।
मदन कुंजवाल दो साल के डेपुटेशन पर आए थे, वह अपर सचिव के पद पर दो साल तक रहे और फिर वापस अपने मूल विभाग में जाकर क्लर्क हो गए।
मुकदमा अभी बाकी है नेताजी
बहरहाल यह केस हाईकोर्ट में अब भी चल रहा है. हालांकि मदन कुंजवाल और डॉक्टर सुनील हरिव्यासी दोनों रिटायर हो गए हैं।
इस केस में फ़ैसला किसी भी तरफ़ आ सकता है यानी कि गोविंद कुंजवाल के इस कदम को अदालत ग़लत भी ठहरा सकती है और नहीं भी
इसलिए यह कहना कि गोविंद कुंजवाल अपने कार्यकाल के दौरान की गई नियुक्तियों में गड़बड़झाले के सभी आरोपों से बरी हो गए हैं, अभी सही नहीं है।